Birthday Deen Dayal Upadhyay : इकलौते चुनाव में जौनपुर से क्यों हार गए थे दीनदयाल उपाध्याय

वर्ष 1962 में देश में तीसरे लोकसभा के चुनाव हुए. लेकिन एक साल बाद ही कुछ सीटों में उपचुनाव की स्थिति बन गई. इसी में एक थी उत्तर प्रदेश की जौनपुर (Jaunpur) सीट. पूरे देश की नजरें इसी पर थीं, क्योंकि यहां से जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deendayal Upadhyay) चुनाव मैदान में थे.

हालांकि दीनदयाल उपाध्याय चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे लेकिन कुछ दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेता भाऊराव देवरस का था और काफी ज्यादा कार्यकर्ताओं का. लिहाजा उन्हें जौनपुर में चुनाव लड़ना पड़ा.

चूंकि उनकी पहचान दिग्गज नेता के तौर पर थी, इसलिए माना जा रहा था कि जौनपुर में वो जीत जाएंगे. इसकी एक वजह अगर उनका कद था तो दूसरी वजह ये थी कि एक साल पहले यहां से जनसंघ के ब्रह्मजीत सिंह ही जीते थे. उनका अचानक निधन हो गया और उपचुनाव की नौबत आ गई.जनसंघ यह मानकर चल रही थी कि जौनपुर में पार्टी का मजबूत जनाधार है. उप चुनाव में इसका फायदा मिलेगा.

हालांकि इस चुना्व को जितना एकतरफा और आसान मान लिया गया था, उतना ये था नहीं कांग्रेस ने दीनदयाल उपाध्याय की टक्कर के लिए राजदेव सिंह को खड़ा किया. वो स्थानीय तौर पर दमदार शख्सियत थे. साथ ही इंदिरा गांधी के करीबी भी. युवाओं में वो लोकप्रिय थे.

दीनदयाल हार गए

जब चुनाव का प्रचार अभियान शुरू हुआ तो ये नजर आने लगा कि कांग्रेस के राजदेव लगातार मजबूत हो रहे हैं. ना जाने क्यों दीनदयाल उपाध्याय ने चुनाव में जो ताकत झोंकनी चाहिए, वो नहीं झोंकी. ऐसा लगा कि उन्होंने भी मान लिया कि ये चुनाव वो हारने जा रहे हैं. आखिरकार जब चुनाव परिणाम आया तो उपाध्याय की उसमें हार हुई.

आखिर क्यों जौनपुर में हारे 

1963 के उप चुनाव में दीनदयाल उपाध्याय की हार के पीछे कई वजहें रहीं. उसमें सबसे खास रही जातीय ध्रुवीकरण. कांग्रेस ने पूरी कोशिश की राजपूत वोटरों का ध्रुवीकरण हो जाए औऱ ऐसा हुआ भी. इसके जवाब में जनसंघ की स्थानीय इकाई ने ब्राम्हण मतदाताओं को रिझाने का प्रयास किया. हालांकि दीनदयाल उपाध्याय खुद ऐेसे ध्रुवीकरण के पक्ष में नहीं थे.

उन्होंने खुद अपनी ‘पॉलीटिकल डायरी’ में लिखा, ‘जनसंघ को इस चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, इसकी वजह यह नहीं थी कि जनता का सपोर्ट नहीं था, बल्कि हम कांग्रेस के तमाम चुनावी हथकंडों का जवाब नहीं दे पाए.

जनसंघ के प्रमुख विचारकों में

पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनता पार्टी के पूर्व रूप भारतीय जनसंघ के प्रमुख विचारकों में से एक थे. उनका जन्म 25 सितंबर, 1916 में हुआ था. साल 2016 में उनकी 100वीं जयंती के अवसर पर भारतीय जनता पार्टी ने कई कार्यक्रमों का आयोजन किया था. पं. दीनदयाल उपाध्याय का सबसे बड़ा योगदान जनसंघ को वैचारिक आधार प्रदान करने का रहा है. जो बाद में भाजपा का भी वैचारिक आधार बना. उनकी वैचारिकता के चलते ही उनका कद आज एक राजनेता से कहीं बड़ा एक विचारक का है.

मथुरा में हुआ जन्म

दीनदयाल उपाध्याय मथुरा के नगला चंद्रभान गांव में जन्मे थे. स्कूल से ही वे एक प्रतिभावान छात्र थे. पिलानी से उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. इसके बाद अंग्रेजी साहित्य में पहले बीए और बाद में एमए की डिग्री ली. उन्होंने इसके अलावा बीएड और एमएड भी किया.

शुरू किया ‘पांचजन्य’ का संपादन

1937 में एक कॉलेज छात्र के तौर पर उनका जुड़ाव पहली बार राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (RSS) से हुआ. RSS के कार्यक्रमों में होने वाली बहसों का उनपर खास प्रभाव पड़ा. 1942 में वह संघ के फुलटाइम मेंबर हो गए. इसी जुड़ाव के दौरान उन्होंने एक मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रीय धर्म’ का प्रकाशन शुरू किया. इसका प्रमुख काम राष्ट्रवाद की अवधारणा को जनता में फैलाना था. बाद में एक साप्ताहिक पत्रिका ‘पांचजन्य’ और दैनिक अख़बार ‘स्वदेश’ भी उन्होंने शुरू किया.

जब मुखर्जी ने कहा-मुझको दीनदयाल दे दो, पूरे देश का चेहरा बदल दूंगा

1951 में दीनदयाल उपाध्याय ने डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर राष्ट्रीय जनसंघ की शुरुआत की. दीनदयाल उपाध्याय की सोच और उनके विचारों से प्रसन्न होकर एक बार डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने उनके बारे में कहा था, “मुझे दो दीनदयाल उपाध्याय दे दो, मैं पूरी तरह से देश का चेहरा बदल दूंगा.”

जनसंघ को नई ऊंचाइयां दीं

1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद जनसंघ की बागडोर दीनदयाल उपाध्याय के हाथों में ही आ गई. उनके नेतृत्व में पार्टी ने नई ऊंचाईयां छुईं. वे उपाध्याय ही थे, जिन्होंने जनसंघ की राजनीतिक विचारधारा को जमीनी कार्यकर्ताओं तक पहुंचाया. बाद में जिसे भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनाया.

वो नहीं चाहते थे कि देश पश्चिमी विचारों का पिछलग्गू बने

दीनदयाल उपाध्याय का राजनीतिक दर्शन कूटनीति से स्वतंत्र था. इसी वजह से वे एकात्म मानववाद जैसी अवधारणा जनता तक पहुंचाने में सफल रहे. दरअसल चुनाव जीतने की अपेक्षा पं. दीनदयाल उपाध्याय का प्रयास अपने राजनीतिक दर्शन को लोगों के बीच ले जाने का था. ताकि वे दूसरे राजनीतिक दलों से अलग और स्पष्ट अपनी एक पहचान बना सकें. वे भारतीय मूल्यों के आधार पर देश में एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचे के निर्माण के समर्थक थे.

एक सच्चे राष्ट्रवादी के तौर पर दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि भारत तब तक तरक्की नहीं कर सकता जब तक वह पश्चिम के व्यक्तिवाद और सोशलिज्म का पिछलग्गू बना रहेगा. यहां तक की आधुनिकता को स्वीकार करते हुए भी उनका मत था कि भारत को अपनी परंपरा और वैचारिकता के हिसाब से ही आधुनिकता को अपनाना चाहिए.

अपने कपड़े खुद धोते थे

पंडित दीन दयाल उपाध्याय बहुत सादगी की जिंदगी जीते थे. बड़े नेता बनने के बाद भी वो अपने कपड़े खुद साफ करते थे. वो हमेशा स्वदेशी वस्तुएं ही खरीदते थे.

गांधीवादी सोशलिस्ट थे उपाध्याय

एक अर्थशास्त्री होने के रूप में दीनदयाल उपाध्याय एक गांधीवादी सोशलिस्ट भी थे. जो कि छोटी यूनिट से ज्यादा उत्पादन में विश्वास करते थे. वे योजना आयोग की बेरोजगारी, जनस्वास्थ्य और देश की मूलभूत संरचना में सुधार ला पाने में असफल रहने के चलते बहुत आलोचना करते थे.

मुगलसराय स्टेशन पर संदिग्ध हालत में मृत पाए गए

11 फरवरी, 1968 की दोपहर उत्तरप्रदेश के मुगलसराय स्टेशन पर दीनदयाल उपाध्याय संदिग्ध हालत में मृत पाए गए. उनके समर्थकों का आरोप था कि उनकी हत्या की गई है. लेकिन अभी तक उनकी मौत एक रहस्य बनी हुई है. हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलकर पं. दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन कर दिया है.

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