भारत को करनी चाहिए ओलिंपिक खेलों की मेजबानी? क्‍या हैं फायदे और नुकसान |

नई दिल्ली: जापान 2020 में टोक्‍यो ओलिंपिक (Tokyo Olympic) की मेजबानी करने जा रहा है. इसके लिए उसने पूरी तैयारी कर ली है और दुनियाभर से आने वाले एथलीट के स्‍वागत के लिए वह तैयार है. टोक्‍यो ओलिंपिक 2020  पर करीब 12.6 अरब डॉलर खर्च करने जा रहा है. इन सबके बीच एक मांग उठती रहती है कि भारत कब ओलिंपिक्‍स की मेजबानी कब करेगा. भारत ने 2032 ओलिंपिक खेलों  की मेजबानी के लिए अर्जी दी है. भारत ने अभी तक कभी भी ओलिंपिक की मेजबानी नहीं की है. वैसे ओलिंपिक के साथ भारत की पटरी बैठी भी नहीं है. भारतीय खिलाड़ियों को इस टूर्नामेंट में पदक जीतने में हमेशा समस्‍या होती है. ओलिंपिक के 123 साल के इतिहास में भारत के नाम केवल 28 मेडल हैं और इनमें भी केवल एक व्‍यक्तिगत गोल्‍ड मेडल है.

विकसित देशों की कतार में खड़े होने की यात्रा तय कर रहे इस एशियाई देश में कई लोग पूछते हैं भारत को ओलिंपिक की मेजबानी करनी चाहिए. लेकिन जितनी आसानी से यह सवाल पूछा जाता है उतना आसान मेजबानी हासिल करना नहीं है.

कैसे मिलती है ओलिंपिक की मेजबानी

ओलिंपिक की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, इसकी दावेदारी के लिए सालों की सावधानीपूर्वक और ध्‍यान से की गई प्‍लानिंग चाहिए होती है. मेजबानी हासिल करने की प्रक्रिया के तहत सबसे पहले आमंत्रण मांगे जाते हैं. इसके बाद दावा करने वाले को अपना विजन, गेम्‍स कॉन्‍सेप्‍ट और स्‍ट्रेटजी पेश करनी होती है. इसके बाद बारी आती है गर्वनेंस, कानून और वेन्‍यू फंडिंग की. तीसरी स्‍टेज में दावेदार का अनुभव आंका जाता है. दावेदारी पर फैसले के लिए एक विश्‍लेषण आयोग बनाया जाता है जो पूरा अध्‍ययन करता है और जो बेहतर दावा होता है उसे चुना जाता है. यह प्रक्रिया प्रत्‍येक 2 साल पर होती है.किसी भी देश को ओलिंपिक की मेजबानी खेलों के आयोजन से 7 साल पहले दे दी जाती है. मेजबानी एक शहर को मिलती है. दावेदारी करने वाले शहर की 10 महीने की ऑडिट की जाती है. इसमें उस शहर की भीड़ सहन करने की क्षमता, ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर, सिक्‍योरिटी और स्‍पोर्ट्स फैसेलिटी शामिल है. दावेदारी के साथ मोटी रकम एप्‍लीकेशन फीस के रूप में जमा करानी होती है.

भारत ने जताई है 2032 ओलिंपिक मेजबानी की इच्‍छा

भारत की ओर से 2032 ओलिंपिक खेलों की मेजबानी की इच्‍छा जताई है. भारतीय ओलिंपिक एसोसिएशन के अध्‍यक्ष नरिंदर बत्रा ने इंटरनेशनल ओलिंपिक कमिटी के अध्‍यक्ष थॉमस बाक को भी इस बारे में अवगत कराया है. बत्रा की ओर से कहा गया है कि मेजबानी के लिए मुंबई के नाम को आगे बढ़ाया जाएगा. भारत ने अभी तक 1951 व 1982 में एशियन खेलों की मेजबानी की है. साथ ही 2010 में कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स की मेजबानी भी की गई है.

हजारो करोड़ रुपये होते हैं मेजबानी पर खर्च

ओलिंपिक मेजबानी हासिल करने के लिए स्‍पोर्ट्स इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर पर काफी पैसा खर्च करना होता है. भारत अभी भी इस मामले में काफी पीछे है. पिछले कुछ सालों में खेलों को लेकर कई कदम उठाए गए हैं लेकिन बेसिक सुविधाएं अभी भी अमेरिका, चीन, इंग्‍लैंड और ऑस्‍ट्रेलिया जैसे देशों से काफी कम है. भारत जैसा ही एक उदाहरण ब्राजील का रहा है. ब्राजील ने 2016 में रियो में ओलिंपिक की मेजबानी की थी. इन खेलों पर ब्राजील ने करीब 9 खरब रुपये खर्च किए थे. ऐसे में इतनी रकम केवल एक शहर में खेलों की सुविधाओं के लिए खर्च करना अव्यवहारिक सा लगता है. रियो में ओलिंपिक के लिए कई नए स्‍टेडियम बनाए गए लेकिन अब वह बेकार पड़े हैं.

कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स पर खर्च किए थे 1600 करोड़

ऐसा ही एक उदाहरण 2012 लंदन ओलिंपिक्‍स का है. इस पर इंग्‍लैंड ने 10-15 बिलियन डॉलर के करीब खर्च किए थे जबकि वहां पर इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर पर पहले से ही काफी मजबूत था. भारत ने 2010 में जब दिल्‍ली में कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स की मेजबानी की थी तब करीब 1600 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. लेकिन इन खेलों के दौरान बड़े स्‍तर पर भ्रष्‍टाचार हुआ था और भारत की मेजबानी की काबिलियत पर सवालिया निशान भी लग गया था.

ओलिंपिक मेजबानी के फायदे

विश्‍वस्‍तर के खेलों की मेजबानी करने से जो सबसे बड़ा फायदा होता है वह खेलों के प्रति रूझान और जागरूकता का बढ़ना. साथ ही मेजबान देश में खेलों के बेसिक इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर में भी सुधार और इजाफा होता है. ओलिंपिक जैसे खेलों की मेजबानी से शहर विशेष के विकास में भी तेजी आती है.

मान लीजिए अगर मुंबई को मेजबानी मिलती है तो वहां पर न केवल नए स्‍टेडियम बनाने होंगे बल्कि सड़कों, ड्रेनेज, पक्‍के घरों के निर्माण में तेजी आएगी. साथ ही स्‍थानीय लोगों के सिविक सेंस में भी सुधार होगा. मेजबान देश को ओलिंपिक में शामिल होने का कोटा भी ज्‍यादा मिलता है इससे पदक जीतने की संभावना भी बढ़ती है.

इकनॉमी पर असर

ओलिंपिक खेलों का मेजबान देश की अर्थव्‍यवस्‍था पर भी काफी असर पड़ता है. उदाहरण के तौर पर 1988 में सिओल 1992 में बार्सिलोना और 2012 में लंदन ओलिंपिक खेलों के बाद इन शहरों में काफी विकास हुआ. सिओल ओलिंपिक ने दक्षिण कोरिया का चेहरा बदल दिया था. वहीं बार्सिलोना दुनिया के बड़े ट्यूरिस्‍ट प्‍लेसेज में शुमार हो गया था. कुछ ऐसा ही लंदन ओलिंपिक्‍स के बाद हुआ और ब्रिटेन की इकनॉमी को करीब 9.9 बिलियन पाउंड का बूस्‍ट मिला.

लेकिन ऐसे भी उदाहरण है जहां पर इन खेलों से पहले और बाद में अर्थव्‍यवस्‍था का रंग अलग-अलग रहा. 1964 के ओलिंपिक खेलों से पहले जापान की विकास दर 13.3 प्रतिशत थी जो बाद में गिरकर 5.7 प्रतिशत पर आ गई. 1976 के मॉट्रिंयल ओलिंपिक्‍स के बाद कनाडा को अगले 40 साल तक सोशल इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर में एकतरफा निवेश का दंश झेलना पड़ा. एथेंस ओलिंपिक की मेजबानी के बोझ से ग्रीस उभर नहीं पाया और मंदी में डूब गया|

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