झारखंड: आदिवासियों के बीच नागरिकता कानून जैसा ही है सीएनटी-एसपीटी मुद्दा, भाजपा-झामुमो आमने-सामने |

झारखंड विधानसभा चुनावों के पांचवे चरण के मतदान के साथ ही अगली सरकार किसकी बनेगी इस सवाल का जवाब ईवीएम में बंद हो गया है। लेकिन, अगली सरकार जो भी बनेगी उसे दशकों से सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट की चक्की में फंसे राज्य के आदिवासियों के अस्तित्व से जुड़े यक्ष प्रश्न का उत्तर जरूर खोजना होगा। राज्य में भूमि स्वामित्व संबंधी इन दोनों कानूनों को लेकर भाजपा और झामुमों एक दूसरे को लगातार निशाने पर लेते रहे हैं।

भाजपा इन कानूनों को लेकर झामुमों पर विकास विरोधी होने का आरोप लगाती है तो झामुमो का कहना है कि इन कानूनों में बदलाव करके भाजपा आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन के बेदखल करना चाहती है। इस राजनीतिक खींचतान की वजह से झारखंड में सीएनटी एसपीटी कानून का मुद्दा नागरिकता कानून जैसा ही संवेदनशील बन गया है। चुनावों में अपने तरीके से दोनों खेमों ने इस मुद्दे को उठाया। अब नतीजे बताएंगे कि जनता विशेषकर आदिवासियों ने किस पर ज्यादा भरोसा किया है।

झारखंड देश का एसा राज्य है जहां आदिवासियों की आबादी का अनुपात सबसे ज्यादा यानी कुल जनसंख्या का 26 फीसदी है। वैसे तो पूरे राज्य में आदिवासी हैं लेकिन इनका सबसे ज्यादा घनत्व संथाल परगना क्षेत्र में हैं, जहां की 18 सीटों पर शेष 16 सीटों के लिए शुक्रवार को पांचवे चरण में मतदान संपन्न हुआ। आदिवासियों में मुख्य रूप से संथाल, मुंडा, उरांव आदि जनजातियां हैं, जिनमें सबसे ज्यादा आबादी संथालों की है और संथाल परगना के छह जिलों में तो संथालों का ही दबदबा है।

संथाल परगना के लिए 1949 में संथाल परगना टीनेंसी एक्ट यानी एसपीटी बना जबकि शेष झारखंड के लिए 1908 में बना छोटा नागपुर टीनेंसी एक्ट यानी सीएनटी लागू होता है। एसपीटी एक्ट के तहत संथाल परगना में कोई बाहरी व्यक्ति जमीन की खरीद फरोख्त नहीं कर सकता यहां तक कि जो जमीन खेती के लिए है उस पर कोई व्यवसायिक या अन्य गतिविधि नहीं हो सकती। यहां तक कि भूस्वामी भी एसा नहीं कर सकता और न ही वह उसे किराए पर किसी को दे सकता है और न ही गिरवी रख सकता है। जबकि सीएनटी के तहत प्रावधान है कि आदिवासी की जमीन उसी राजस्व थाना क्षेत्र में ही आदिवासी के द्वारा ही खरीदी बेची जा सकती है और गैर आदिवासी सिर्फ अपने जिले में ही जमीन खरीद बेच सकता है।

जिस समय यह कानून बना था उस समय राजस्व थाने हुआ करते थे और उनका दायरा जिलों से बडा होता था। जैसे लोहरदगा राजस्व थाने के तहत रांची समेत कई जिले आते थे। यह कानून अभी भी अपने मूल रूप में लागू है जबकि ११२ साल बाद अब झारखंड और देश के हालात बदल चुके हैं। राजस्व थानों की जगह राजस्व जिले बन चुके हैं जो जिनका दायरा थानों से कई गुना बड़ा है। इसलिए स्थिति खासी जटिल हो गई है।

वरिष्ठ पत्रकार श्याम चौबे के मुताबिक इन कानूनों में सार्वजनिक हित के लिए कुछ जरूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण हो सकता है लेकिन साथ ही यह प्रावधान भी है कि अगर पांच साल तक उस भूमि पर जिसके लिए भूमि ली गई है उससे संबंधित कोई निर्माण या काम नहीं हुआ तो उसे भूस्वामी को लौटा दिया जाएगा। राजनीतिक विश्लेषक राजेंद्र तिवारी कहते हैं कि भूमि अधिग्रहीत तो होती है पर पांच साल बाद भी अगर उसका उपयोग नहीं होता तो लौटाई नहीं जाती है। इससे भी आदिवासियों में सरकार ओर प्रशासन की साख गिरी है।

एसपीटी और सीएनटी कानून राज्य आदिवासियों के जीवन अस्तित्व और पहचान से जुड़ा सबसे बड़ा मुद्दा है, क्योंकि भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों ने इनमें बदलाव की कोशिश की लेकिन विधानसभा से लेकर पूरे राज्य में जिस तरह से इसका विरोध हुआ दोनों बार भाजपा सरकारों को अपने कदम वापस लेने पड़े। झारखंड राज्य बनने के बाद राज्य में पहली सरकार बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व में भाजपा की बनी लेकिन मरांडी ने सीएनी और एसपीटी कानूनों से छेड़छाड़ करने की कोई कोशिश नहीं की।

इसी तरह शिबू सोरेन और उनके बेटे हेमंत सोरेन भी मुख्यमंत्री बने लेकिन उन्होंने भी इस मुद्दे को नहीं छेड़ा।जबकि राज्य में एक बड़ा वर्ग खासकर व्यापारी और उद्योगपति बराबर इन कानूनों को बदलने की मांग करते रहे हैं। उनका कहना है कि इन कानूनों की वजह से राज्य विकास अवरुद्ध है क्योंकि उद्योगों और अन्य व्यवसायिक गतिविधियों के लिए राज्य में जमीन ही नहीं मिल पाती है। इसलिए जब भाजपा के अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने तो शहरी क्षेत्रों को इन कानूनों की परिधि से बाहर करने का एक विधेयक विधानसभा में लाया गया। लेकिन, उस विधेयक का न सिर्फ विपक्ष बल्कि सत्ता पक्ष के विधायकों ने भी भारी विरोध किया और इसे आदिवासियों के मूल अधिकारों और अस्तित्व के लिए खतरा बताते हुए राज्य भर में विरोध प्रदर्शन हुए।दबाव में मुंडा सरकार को अपने कदम वापस खींचने पड़े।

२०१४ में भाजपा की सरकार फिर बनने के बाद मुख्यमंत्री रघुबरदास ने भी इन कानूनों में बदलाव की पहल की लेकिन उन्हें भी सदन के भीतर बाहर भारी विरोध का सामना करना पड़ा।उन्हें भी पीछे हटना पड़ा। गोड्डा में एक निजी उद्योग समूह को बिजलीघर बनाने के लिए बेहद सस्ते दामों पर देने के लिए उस जमीन की सर्किल दरों को आसपास की दूसरी जमीन की सर्किल दरों का महज 20 फीसदी करने को लेकर सरकार की खासी आलोचना हुई थी और विपक्ष ने इसे एक बड़ा घोटाला बताया था।

विपक्ष का आरोप है कि इस निजी बिजलीघर से बनने वाली बिजली का एक यूनिट भारत और झारखंड के लिए नहीं है और इसमें बनने वाली सारी बिजली बांग्लादेश को बेची जाएगी। आउटलुक साप्ताहिक और प्रभात खबर से जुड़े रहे सुनील तिवारी बताते हैं कि विपक्ष के विरोध की वजह से करीब डेढ़ साल तक विधानसभा में कामकाज सामान्य नहीं हो सका था।

विधानसभा चुनावों में सीएनटी और एसपीटी कानून भी एक बड़ा मुद्दा हैं। जहां भाजपा इन्हें विकास में रोड़ा बताते हुए शहरी क्षेत्रों को इनके दायरे से बाहर करने की बात करती है,वहीं झामुमो इसे आदिवासियों के अस्तित्व से जोड़कर इनमें किसी भी तरह के बदलाव के खिलाफ है। झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और महागठबंधन के तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर कहते हैं कि राज्य का विकास भी जरूरी है लेकिन साथ ही राज्य के मूल निवासी आदिवासियों के हक और वजूद की रक्षा भी उतनी ही जरूरी है। हमारी सरकार बनेगी तो इस मुद्दे का कोई सर्वमान्य हल निकाला जाएगा,लेकिन आदिवासियों की जमीन पर जिन पूंजीपतियों की नजरें हैं भाजपा उनके हित साधना चाहती है,लेकिन झामुमो ऐसा नहीं होने देगा।

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