ब्लड बैंकों में खून के क्रास मिलान के लिए एक्सपायर्ड किट का इस्तेमाल हो रहा है। रक्त की थैलियां बंद करने के लिए टयूब सीलर तक उपलब्ध नहीं है और मोमबत्ती की लौ से थैलियां बंद की जा रही हैं। हेपेटाइटिस, सीफिलिस, मलेरिया व एचआईवी सरीखे रक्त संचारित रोगों के लिए और ब्लड ग्रुप सेरोलॉजी के लिए एक ही प्रयोगशाला का इस्तेमाल हो रहा है। जबकि मानकों के हिसाब से अलग प्रयोगशाला होनी चाहिए।
उचित जल निकासी का आभवा था। डिस्पोजेबल आइटम ब्लड बैंक की गैलरी में रखे गए थे। अपशिष्ट रक्त और रक्त नलियाें के परीक्षण की मेज पर रखे गए कूड़ेदान में डाला गया था। गंभीर बात यह है कि इन ब्लड बैंकों की इन कमियों को पकड़ने में भी सिस्टम की कोई खास रुचि नजर नहीं आ रही है। यह तथ्य सामने आया है कि 2015-18 के दौरान ब्लड बैंकों के 96 निरीक्षण होने चाहिए थे, लेकिन चार साल में केवल 22 निरीक्षण ही हो पाए।
कार्ययोजना तक नहीं
स्टेट ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल (एसबीटीसी) के प्रावधान के हिसाब से उसे एक चरणबद्ध ढंग से रिप्लेसमेंट डोनर्स को कम करने और स्वैच्छिक रक्त दाताओं से सुरक्षित और गुणवत्ता वाले रक्त के संग्रह का 100 प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त करने के लिए एक कार्य योजना तैयार करनी थी। लेकिन एसबीटीसी ने ऐसी कोई कार्ययोजना नहीं बनाई।
इतना नहीं उसकी पर्याप्त बैठकें तक नहीं हुईं। वह सूचना, शिक्षा और संचार के मामले में भी खास सक्रियता नहीं दिखा सका। कैग ने पांच ब्लड बैंकों की नमूना जांच में पाया कि वे 40 प्रतिशत भी लक्ष्य नहीं प्राप्त कर सके। 2015-18 के दौरान सात ब्लड बैंकों में स्वैच्छिक रक्तदान की प्रतिशतता बहुत कम थी। हरिद्वार ब्लड बैंक के मामले में शून्य प्रतिशत था।